आखिर गांधी जी लखनऊ विश्वविद्यालय से नाराज क्यों हुए|
1864 लॉर्ड केनिंग की याद समें खोला गया एक छोटा स्कूल वर्ष 1920 में लखनऊ विश्वविद्यालय बन गया। इस विश्वविद्यालय के 100 बरस के गौरवमय इतिहास से सभी परिचित हैं, लेकिन यहां के छात्र संघ का रचनात्मक इतिहास अनछुआ रह जाता है।
छात्र संघ के शुरुआती दौर में खासकर आजादी के पहले सकारात्मक सामाजिक बदलाव के पक्षधर सक्रिय छात्र इससे खुद ब खुद जुड़ते जाते थे। छात्र संघ के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विश्वविद्यालय के बाहर के किसी जाने-माने व्यक्ति को छात्र संघ का ‘ऑनरेरी मेंबर’ बनने का आमंत्रण देना और उसके द्वारा स्वीकार किया जाना दोनों के लिए सम्मान का विषय होता था। देश की कई महान विभूतियां अपने समय में लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ की ‘ऑनरेरी मेंबर’ रह चुकी हैं। इनमें भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, मोरारजी देसाई, इंदिरा गांधी, वीपी सिंह, प्रसिद्ध गांधीवादी अब्दुल गफ्फार खां, जय प्रकाश नारायण और भूतपूर्व सेनाध्यक्ष पद्म भूषण गोपाल गुरुनाथ बेवूर प्रमुख हैं। जिन्होंने बांग्लादेश के युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाई थी। उस समय विवि प्रशासन और छात्र संघ एकजुटता में लगा था| टकराव कम और सहयोग की भावना अधिक थी। यही कारण था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस, गुरु रविंद्रनाथ टैगोर जैसी हस्तियों को लखनऊ विवि में आमंत्रित किया जाता था। इन कारणों से छात्रों का बौद्धिक, कलात्मक और साहित्यिक स्तर इतना ऊंचा था कि विश्वविद्यालय के कार्यक्रमों में केवल स्तरीय कलाकार या साहित्यकार तारीफ पाते थे। कहा तो यहां तक जाता है कि सन् 1948 के आसपास जब कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी मधुशाला विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में जाकर सुनाई तो छात्रों ने यह कहकर उसकी उपेक्षा |
इसी सृजनात्मक और रचनात्मक परंपरा के अंतर्गत 27 सितंबर 1929 को छात्र संघ के उद्घाटन के लिए महात्मा गांधी को विश्वविद्यालय आमंत्रित किया गया। भारत की आजादी से पूर्व का समय था, अतः
अध्यापक और छात्र दोनों ही इस कार्यक्रम को लेकर काफी उत्साहित थे। कार्यक्रम के दिन विश्वविद्यालय का मालवीय हॉल ये उस समय बेनेट हॉल कहा जात था (यह नाम ब्रिटिश अधिकारी के नाम पर पड़ा था) खचदर भरा था। गांधीजी ने जब को पहुंचकर अपना स्थान प्रहर किया तो छात्रों ने उनका स्वागत अंग्रेजी भाषणों द्वारा किया। पह बात गांधीजी को बहुत चुरो लगी और जब उनके बोलने का अवसर आया तो गांधीजी ने खुलकर अपनी नाराजगी प्रकट करते हुए कार्यक्रम के बद छात्रों से कहा कि मुझे इस बात का अफसेस है कि मेरा स्वागत हिंदुस्तानी के बजाए अंग्रेजी में हुआ। गांधीजी ने उन लोगों की भर्त्सना की जो अपनी मातृ भाषा को छोड़कर विदेशियों काश गांधीजी की बात को आज का भारत समझ पाता और अपना बहुमूल्य समय व श्रम केवल एक भाषा को सीखने में बर्बाद न करता। क्योंकि भाषा मात्र माध्यम है ज्ञान नहीं।
लखनवी पन्ने
writer: रवि भट्ट