लखनऊ यूनिवर्सिटी की शुरुआत कैसे हुआ था! चलिए जानते है!

जहां हुई लखनऊ यूनिवर्सिटी की शुरुआत!

लखनऊ विश्वविद्यालय ने अपनी ज़िन्दगी के शानदार सौ साल पूरे कर लिये हैं। इसी साल इसकी शताब्दी के जश्न मनाये जा रहे हैं। सन 1920 में स्थापित ये विश्वविद्यालय भारत के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक है। लेकिन क्या आपको पता है कि जिस जगह ये विश्वविद्यालय है, इससे पहले वहां बादशाह बाग़ नाम का एक बड़ा बाग़ हुआ करता था और वहां तीन महल थे और एक हमाम हुआ करता था जिसका इस्तेमाल नवाब और उनके परिवार के लोग गर्मी के मौसम में किया करते थे? लेकिन एक बेगम ने यहां आत्महत्या करली थी। उसी के बाद ये बाग़ वीरान हो गया था। आज विश्वविद्यालय परिसर में लाल बारादरी इमारत नवाबों के इतिहास की कहानी बयां करती है।

बादशाह बाग़ में लाल बारादरी

सन 1775 में नवाब असफ़उद्दौला ने फ़ैज़ाबाद की जगह अवध को राजधानी लखनऊ बना ली थी। बाद के नवाबों ने शहर में कई महल, हवेलियां, इमामबाड़े और बाग़ बनवाए। ऐसा ही बाग़ था बादशाह बाग़ जो गोमती नदी के दूसरी तरफ़ था जिसे नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर ने बनवाया था।

लखनऊ विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. डॉ. घोष के अनुसार लाल बारादारी इमारत की बुनियाद नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर शाह ने सन 1819 में रखी थी जो उनकी बेगम बादशाह बेगम के नाम पर थी। बाद में अवध के दूसरे राजा और उनके पुत्र नसीर उद्दीन शाह हैदर शाह ने इस इमारत का निर्माण कार्य पूरा करवाया था। नवाब नसीर उद्दीन हैदर शाह इसे अपनी रानियों के पिकनिक स्थल के रुप में बनवाना चाहते थे जो गोमती नदी की दूसरी तरफ़ छतर मंज़िल महल में रहती थीं। उनका परिवार नाव से गोमती नदी पार कर बादशाह बाग़ में पिकनिक मनाने आया करता था।

ऊंची दीवारों वाले बाग़ के दो प्रवेश द्वार हुआ करते थे। बारादरी के सामने एक चौड़ी नहर होती थी जिसमें गुलाब की ख़ुशबू वाला पानी होता था और नहर के सफ़ेद झिलमिलाते पानी में रंग बिरंगी मछलियां तैरती थीं। नहर में पानी गोमती नदी से आता था और नहर के ऊपर एक सुंदर सा पुल बना हुआ था। बाग़ में फूलों की बगियां होती थीं और शाम को बाग़ के पथ चांदी के क़ंदीलों से जगमगा उठते थे। बादशाह बाग़ में एक छोटा सा चिड़िया घर भी था जहां पिंजरों में पशु-पक्षी रहते थे और आगंतुकों के लिये नियमित रुप से मुर्ग़ों की लड़ाई का आयोजन भी किया जाता था। लेफ़्टिनेंट कर्नल डेविड डोडगसन लिखते हैं- “मुर्ग़ों की लड़ाई के लिए एक खुला तम्बू बना था जिसके आसपास सुंदर राहदारियां बनी थीं।”

विक्टोरिया काल की एक महिला फ़ैनी पार्क्स सन 1831 में बादशाह बाग़ आईं थी,उनके लेखन में बादशाह बाग़ की गरिमा का उल्लेख मिलता है। फ़ैनी पार्क्स भारत में सन 1822 से लेकर सन 1845 तक रही थीं। वापस लंदन लौटकर उन्होंने बादशाह बाग़ के ज़नाना ख़ाने में उनके प्रवास के बारे में लिखा। उनकी किताब “वैंडरिंग ऑफ़ ए पिलग्रिम इन सर्च ऑफ़ द पिक्चरक्यू” 1850 में प्रकाशित हुई थी। दो खंडों में ये यात्रा वृतांत भारत में उनके जीवन की गाथा सुनाता है।

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